How far is it appropriate to forgive the murderer

How far is it appropriate to forgive the murderer : सॉरी बोलकर हत्यारे को माफ करना कहां तक उचित 

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How far is it appropriate to forgive the murderer

How far is it appropriate to forgive the murderer : पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी (Former Prime Minister Rajiv Gandhi) के हत्यारों की रिहाई भारतीय न्यायिक प्रणाली के मौजूदा प्रारूप पर गहन चिंतन की मांग कर रही है। न्याय व्यवस्था में एक आरोपी और फिर अदालत से दोषी करार व्यक्ति के मानवाधिकारों का भी ख्याल रखा गया है, हालांकि जिसके साथ वारदात अंजाम दी गई होती है, उसका सम्मान या फिर जीवन ही खत्म हो चुका होता है, फिर वह किस प्रकार के मानवाधिकारों की इच्छा रखे। ऐसे में अगर यह पूछा जाता है कि आखिर न्याय किसे मिला तो यह अनुचित सवाल नहीं है। 21 मई 1991 को श्रीपेरंबदूर में उस समय के सबसे युवा और प्रतिभासंपन्न राजनेता राजीव गांधी की हत्या करके दोषियों ने न केवल गांधी परिवार को भारी क्षति पहुंचाई थी, अपितु देश और समाज का भी नुकसान किया था, हालांकि अब सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) के आदेश पर दोषी नलिनी श्रीहरन समेत छह दोषियों को समय पूर्व रिहा कर दिया गया है। इस रिहाई के बाद दोषी नलिनी श्रीहरन ने राजीव गांधी की हत्या के संबंध में महज सॉरी कहकर खानापूर्ति कर ली।

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राजीव गांधी नब्बे के दशक में उभरते हुए भारत के प्रतीक थे। उस समय वे युवाओं के आइकन बन गए थे और देश उनकी पश्चिमी देशों में हुई शिक्षा का फायदा ले रहा था। वे देश में आईटी के जनक (father of IT) थे लेकिन इस वारदात ने पूरे देश को झकझोर दिया था। आज उनकी पत्नी एवं पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandih) दोषियों को माफ कर चुकी हैं, लेकिन देश के लोगों के दिलों में अभी भी इसके जख्म हैं कि राजीव गांधी को असमय दुनिया से रुखसत कर दिया गया। अगर राजीव गांधी जीवित रहते तो संभव है, देश का मौजूदा स्वरूप कुछ और होता। क्या उस क्षति की भरपाई की जा सकती है, तब जेल से बाहर आकर अगर दोषी खुशियां मनाते हुए महज सॉरी कहकर बच निकलना (just say sorry) चाहते हैं तो क्या यह शर्मनाक नहीं है। वास्तव में जेल की दीवारें भी किसी दोषी को उसके अपराध की सजा नहीं दे सकती, जब तक कि वह खुद उस अपराध के लिए खुद को दोषी न समझे। ज्यादातर मामलों में होता यह है कि अपराधी अपराध करने के बावजूद खुद के बच निकलने के हथकंडे अपनाता है और फिर न्याय प्रणाली के सुराखों के जरिए बाहर आ जाता है।

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इन दोषियों की रिहाई की तमिलनाडु सरकार (Government of Tamil Nadu) ने सिफारिश की थी। उनकी रिहाई के संबंध में अदालत ने यह भी देखा कि उन्होंने तीन दशक से ज्यादा का समय जेल में गुजारा है और जेल में उनका आचरण अच्छा रहा, उन्होंने शिक्षा की डिग्रियां भी हासिल कीं। यह भी समझने वाली बात है कि दोषियों को पहले मौत की सजा दी गई थी, लेकिन बाद में उसे उम्रकैद में बदल दिया गया। भारतीय न्याय प्रणाली (Indian judicial system) की यह उदारता ही कही जाएगी कि इतने जघन्य अपराध जिसमें एक युवा नेता की हत्या कर दी गई और अन्य अनेक भी उनके साथ मृत्यु को प्राप्त हो गए, उसके बावजूद दोषी करार दिए गए अपराधियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया। अपनी रिहाई पर वे दोषी अब यह कहकर जश्न मना रहे हैं कि इस खुशी के भाव शब्दों में बयां नहीं किए जा सकते। इसके बाद उनका यह भी कहना है कि न्यायपालिका में उनका विश्वास कई गुना बढ़ गया है। आज दोषी जेल की दीवारों से बाहर हैं, इसलिए उनका विश्वास न्यायपालिका पर बढ़ गया है, लेकिन जो लोग दुनिया में ही नहीं हैं, या फिर उस वारदात में मिले जख्मों का आज भी इलाज करवा रहे हैं, क्या वे भी यही बात कह सकते हैं।

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 रेप से बढकऱ किसी महिला के साथ और कौनसा जघन्य अपराध हो सकता है, लेकिन अपराधी को अदालतें ज्यादा से ज्यादा दस साल तक की सजा देकर छोड़ देती हैं, अदालतों में बचाव पक्ष के वकील अपराधियों के लिए न्यायप्रणाली के सुराख ढ़ूढ़ते रहते हैं, फिर महिला के चरित्र पर ही सवाल (question on the character of the woman) उठते हैं। आखिर ऐसे में न्याय प्रणाली पर किसका भरोसा बढ़ता है, उस पीडि़ता का या फिर उन अपराधियों का, जोकि कानून की खामियों की वजह से सजा से बच निकलते हैं। राजीव गांधी हत्याकांड (Rajiv Gandhi assassination) में कांग्रेस दोषियों की रिहाई पर अगर सवाल उठाए हैं, तो यह स्वाभाविक है। यह ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसके संबंध में बात ही नहीं की जानी चाहिए, यह सोचते हुए कि अपराधियों के भी मानवाधिकार हैं, अदालत उनके लिए भी हैं। पार्टी का तर्क है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जनभावनाओं के अनुरूप फैसला नहीं लिया है। हालांकि पार्टी को यह भी समझना चाहिए कि दोषियों की रिहाई की मांग राजनीतिकों के गलियारों से सामने आई है। भारतीय न्याय व्यवस्था में वही किया जाता है जोकि संविधान में दर्ज हो चुका है, अदालतें उसी की व्याख्या करती हैं, ऐसे में कानून निर्माताओं को यह सोचना चाहिए कि ऐसे मामलों में दोनों पक्षों को न्याय मिले। किसी का जीवन खत्म हो जाए और कोई सॉरी बोलकर रिहाई का आनंद ले, यह कहां तक उचित है इस सवाल का जवाब हम सबको ढूंढने की जरूरत है।

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